व्यापार और भूमंडलीकरण
(19वीं तथा प्रारंभिक 20वीं शताब्दी में विश्व बाजार का विस्तार और एकीकरण)
वैश्विक बाजार की कल्पना कोई नई बात नहीं। प्राचीन बीन में रेशम का व्यापार होता था। जिस मार्ग से वह व्यापार होता था उसका नाम ही रेशम मार्ग पड़ गया। भारत का व्यापार पश्चिम में रोम से लेकर पूर्व में कम्बोडिया, मलाया, सुमात्रा आदि तक में फैला था। सिकन्दर ने सिकन्दरिया (एलेक्जेण्ड्यिा) नामक ऐसा नगर बसाया कि वहाँ विश्व भर के व्यापारी एकत्र होते थे। कोई अपना माल बेचता था, कोई खरीदता था। कुछ व्यापारी तो वहाँ ऐसे भी पहुँचते थे जो बेचना-खरीदना दोनों करते थे। आज की भाषा में ऐसे बाजार को विश्व बाजार कहते हैं। जैसे भारत में मुंबई, कोलकाता इत्यादि।
आज विश्व ही एक बाजार के रूप में विकसित हो गया है। ऐसा भूमंडलीकरण की सफलता के कारण हुआ है। 18वीं सदी के आरम्भ से ही विश्व बाजार का स्वरूप देखा गया, जो निरंतर विस्तार पाता गया। विश्व बाजार के अनेक लाभ है, तो कुछ हानि भी है। लाभ यह है कि सभी देशों के निर्मित सामान सभी देशों में मिलने लगे हैं। हानि यह है कि प्रतियोगिता के कारण स्थानीय उत्पादन गौण पड़ जाते हैं। अधिक से अधिक बाजार पर कब्जा के लिए उपनिवेशीकरण की होड़ मची, जिस कारण दो-दो विश्व युद्धों को झेलना पड़ा, जिनसे विश्व बाजार और वैश्विक अर्थतंत्र को हानि भी पहुँची।
आर्थिक मंदी युद्ध के कारण ही सामने आई थी, जो 1929 से 1933 तक रही। आर्थिक मंदी का प्रभाव पड़ा कि अमेरिका बुरी तरह लड़खड़ा गया। विश्व बाजार के विकसित होने से अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों में भी सुधार आया।
द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद विश्व यह सोचने को मजबूर हुआ कि ऐसी व्यवस्था की जाय कि फिर ऐसे युद्ध न हो। पहले तो हथियारों की होड़ मची, जिसने 'शीत युद्ध' को जन्म दिया। लेकिन अब हथियारों के स्थान पर किसी देश का महत्व इस बात से समझा जाने लगा है कि देश विशेष के लोग कितने सम्पन्न हैं। आज जीवीकोपार्जन तथा भूमंडलीकरण एक-दूसरे के पर्याय हो गए है, बल्कि यह भी कह सकते है कि जीवीकोपार्जन तथा भूमंडलीकरण में परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बंध हो गया है।