प्रेस-संस्कृति एवं राष्ट्रवाद
आज विश्व ने जो प्रगति की है, उसकी जड़ में प्रेस संस्कृति ही रही है। यदि प्रेस का विकास नहीं हुआ रहता तो आज न तो वैज्ञानिक पुस्तके उपलब्ध हो पाती और न ही विज्ञान की उन्नति हो पाती। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रेस-संस्कृति को आज की स्थिति में पहुंचाने के लिए प्रबुद्ध लोगों को कितने पापड़ बेलने पड़े थे। तालपत्री पर हाथ से लिखने के बाद कागज पर लिखकर पुस्तके तैयार होने लगी। कागज का आविष्कार चीन में हुआ लेकिन मुद्रण का शुरुआत यूरोप में हुआ। चीनी बौद्ध प्रचारको ने जापान में मुद्रण कला को पहुंचाया तो यूरोप में मार्कोपोलो ने मुद्रणकला को पहुँचाया वह इसे चीन से ही ले गया था। जर्मनी में गुटेन्बर्ग ने पहली मुद्रण मशीन बनाई। बाद में जर्मनी में ही बेहतर मुद्रण मशीन बनी। जर्मनी से ये पूरे यूरोप और बाद में भारत तथा
अन्य देशों में पहुँच गयी। पहले तो धार्मिक पुस्तकें ही छपी, बाद में आधुनिक विद्वानों के विचार छपने लगे। इससे समाज के दबे कुचले दलितवर्ग में चेतना का संचार हुआ। मुद्रण संस्कृति ने चर्चा के पाखंड को खोला तो राजाओं की मनमानी के विरुद्ध भी जनता को जागृत किया। राजतंत्र के विरुद्ध आन्दोलन हुए और प्रजातंत्र का समर्थन किया गया। प्रेस-संस्कृति और फ्रांसीसी क्रांति में घना सम्बंध था। चर्च और राजाओं मुद्रण संस्कृति ने का विरोध तो किया लेकिन वे इसमें सफल नहीं हुए। प्रेस-संस्कृति से कारखानों के कामगारों में भी चेतना का विकास हुआ। वे मालिकों से अपने लिए सुविधाओं की माँग मनवाने में समर्थ हुए।
प्रेस संस्कृति से भारत भी अछूता नहीं रहा। भारत में भी प्रेस-संस्कृति पर लगाम कसने का प्रयास हुआ, लेकिन यहाँ पडे-पुजारियों द्वारा नहीं, बल्कि ब्रिटिश शासको द्वारा। वे मुद्रण संस्कृति के प्रसार को अपने लिए खतरा समझते थे। लेकिन वे इसे पूरी तरह दबा पाने में सफल नहीं हुए। मुद्रण संस्कृति ने भारत में धार्मिक सुधार आन्दोलनों को बल दिया। अब मुद्रण में विविधता आने लगी थी। पुस्तकों के तथ्यों को सिद्ध करने के लिए चित्रों की सहायता ली जाने लगी। मुद्रण संस्कृति के विकास से भारतीय महिलाएँ भी शिक्षा की ओर उन्मुख हुई। गरीब जनता ने भी मुद्रण संस्कृति का लाभ उठाया। बाद में ब्रिटिश शासकों को प्रेस संस्कृति से अपने शासन पर खतरा महसूस होने लगा, जिससे उन्होंने प्रेसों पर अनेक पाबंदी लगाए।