bihar board class 10 Civics chapter -1Hindi notes ||नागरिक शास्त्र ||कक्षा-10|| हिंदी नोट्स || (लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी)

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 लोकतंत्र में सत्ता की साझेदारी

लोकतंत्र में द्वंद्ववाद वर्ग 9 में हम जान चुके हैं कि वैश्विक परिदृश्य में लोकतंत्र का किस प्रकार विकास हुआ। अब इस वर्ग 10 में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि सामाजिक विषमता के कारण लोकतंत्र में द्वन्द्व के तत्व किस प्रकार प्रवेश कर चुके हैं। हम यह भी जानेंगे कि सामाजिक विभिन्नता और लोकतांत्रिक राजनीति किस प्रकार एक दूसरे को प्रभावित करती है।

सामाजिक भेदभाव के तीन तत्व हैं:

 () जाति

() धर्म तथा 

() लिंग। 

इन्हीं तीन तत्वों के आधार पर समाज में विषमताएँ दृष्टिगत होती हैं। हालांकि सामाजिक विषमता का मुख्य आधार आर्थिक है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था में सामाजिक विभाजन के रूप लोकतंत्र में द्वन्द्ववाद का भी सर्वोपरोकारक सामाजिक विभाजन ही है। क्षेत्रीय भावना भी सामाजिक भेदभाव का कारण है। मुंबई में इसका घिनौना रूप हम सब देख चुके हैं और देख रहे हैं। लेकिन इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि सामाजिक विभिन्नता और सामाजिक विभाजन में काफी अंतर है। वास्तव में सामाजिक विभाजन तब होता है जब कुछ सामाजिक अंतर दूसरी विभन्नताओं से ऊपर और बड़े हो जाते हैं।

धार्मिक टकराव समाज में टकराव केवल दो जातियों में ही नहीं है बल्कि एक जाति में भी उपजाति के चलते टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। हिन्दू धर्म वैष्णव, शव और शाक्त, इस्लाम में शिया और सुनी, बौद्ध धर्म में महायान तथा हीनयान, जैन धर्म में दिगम्बर और श्वेतम्बर, ईसाइयों में रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेट इत्यादि सबो में टकराव की स्थिति बनी रही है जो समय-समय पर दृष्टिगत होती है। संत तुलसी दास के चलते हिन्दुओं में जो वैष्णव, शैव और शक्त के रूप में विभेद था वह मिट चुका है और सभी का आदर सभी करते हैं। लेकिन लोकतंत्र है तो किसी--किसी रूप में टकराव तो बना ही रहेगा। टकराव और सामस्य की सीढ़ियाँ चढ़ कर ही लोकतंत्र के मंजिल तक पहुँचा जाता है।


सामाजिक विभाजन के तत्व- सामाजिक विभाजन के मुख्य तीन तत्व हैं :

(i) राष्ट्रीय चेतना

(ii)  समुदाय और क्षेत्रीयता तथा 

(iii) सरकार का रूप

सामाजिक असमानताओं की जननी वास्तव में वर्ण व्यवस्था रही है जो भारत को देन है। वर्ण व्यवस्था ही आगे चलकर जाति की अवधारणा को मजबूत किया और जाति उपजातियों में बँट गई। आज की स्थिति यह है कि आप चाहे किसी भी वर्ग या जाति-उपजाति के हो, यदि आपकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ है तो समाज के छोटे-बड़े सभी आपको सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, सर्वत्र आपको आदर की दृष्टि से देखा जा सकता है।

राजनीति में जाति-यदि हम समुदाय की संरचना पर ध्यान दें तो देखते हैं कि किसी जाति का ही समुदाय स्वाभाविक होता है। किसी समुदाय का हित प्रायः समान रहता है। लेकिन अपने देश भारत में तो यह देखा जाता है कि निर्वाचन के समय समुदाय गौण हो जाता है और जाति या उपजाति ही मुख्य हो जाती है। इसको हवा देने वाले राजनीतिक दल के उम्मीदवार ही होते हैं। वे इससे होने वाली हानियों की परवाह नहीं करते और ऐसा ही व्यवहार करते हैं कि येन-केन-प्रकारेण उनको वोट मिल जाय या मिलता रहे।

हाल के वर्षों में जातीयता में कुछ ह्रास के लक्षण दिखाई दिए है, किन्तु पूरी तरह से वह समाप्त नहीं हुई है। चाहे जो हो, कोई उम्मीदवार यह चाहे कि वह किसी एक जाति या एक समुदाय के बल पर चुनाव जीत जाएगा तो यह उसका भ्रम है।

साम्प्रदायिकता यह मानना कि धर्म ही सामुदायिक या समुदाय का गठन करता है तो यही से सम्प्रदाय को राजनीति से जोड़कर उसे साम्प्रदायिकता की संज्ञा दी जाने लगती है। लेकिन वास्तविक रूप से सम्प्रदाय धर्म का एक उपभाग है। जैसे वैदिक धर्म अर्थात तथाकथित हिन्दू धर्म में तीन सम्प्रदाय वैष्णव, शैव तथा शाक्त सम्प्रदाय हैं तो इस्लाम में शिया और सुन्नी, बौद्धों में हीनयान और महायान; ईसाइयों में कैथोलिक तथा प्रोस्टेट आदि। धर्मों के अन्दर इसी अन्तर और परस्पर के संघर्ष को साम्प्रदायिकता कहते है। लेकिन राजनीतिज्ञों की भाषा में दो धर्मों के बीच टकराव को साम्प्रदायिकता नाम दिया जाता है। यह अवधारणा अत्यंत गलत है, जो देश में अस्थिरता पैदा करती है। इसे रोकने का प्रयास होना चाहिए।

वास्तव में साम्प्रदायिकता राजनीतिक दलों की स्वार्थपरक नीति तथा अपने धर्म को श्रेष्ठ तथा दूसरे के धर्म को हीन समझने की भावना से विकास पाती है। इसका घृणित परिणाम साम्प्रदायिक हिंसा है। भारत संविधानतः एक धर्म निरपेक्ष देश है। यहाँ राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है। यह सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है।

लैंगिक मसले और राजनीतिपुरुष और स्त्री के जैविक बनावट में लैंगिक भिन्नता आती है। इसका सही तात्पर्य पुरुष और स्त्री में अंतर है। यद्यपि भारत में स्थानीय निकायों में रिवयों के लिए आरक्षण की व्यवस्था हो चुकी है, किन्तु विधायिका या संसद में अपनी सदस्यता की माँग के लिए महिलाओं के संगठन प्रयासरत है और पुरुष प्रधान भारतीय समाज इसे मानने को तैयार नहीं दीखता। यद्यपि घर के कार्यों से लेकर कृषि कार्यों तक में स्त्रियों की भागीदारी कोई कम नहीं ये अब हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगी है। यहाँ तक की सेना में भी।

 

 

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